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अलंकार
अलंकार का शाब्दिक अर्थ है " आभूषण " या " शोभा करने वाला "
जिस प्रकार आभूषण किसी स्त्री की शोभा या सुंदरता बढ़ाते हैं , उसी प्रकार से अलंकार काव्य की शोभा बढ़ाते हैं।
अलंकार के चार भेद होते हैं।
1 शब्दालंकार 2 अर्थालंकार 3 उभयालंकार 4 पाश्चात्य अलंकार
१ शब्दालंकार = वह अलंकार जो काव्य में शब्दों के माध्यम से काव्य को सुशोभित करते हैं उसे शब्दालंकार कहते हैं। जैसे - चारु चंद्र की चंचल किरणें यहाँ "च " वर्ण की आवृति से काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि हो रही है।
शब्दालंकार के निम्न भेद होते हैं जैसे =
१ अनुप्रास अलंकार २ यमक अलंकार ३ पुनरुक्ति अलंकार ४ वीप्सा अलंकार ५ वक्रोक्ति अलंकार ६ श्लेष अलंकार
शब्दालंकार को याद करने की ट्रिक
"अनु यमक पुनरुक्ति , श्लेष वीप्सा वक्रोक्ति "
२ अर्थालंकार =काव्य में जहाँ अर्थ के द्वारा चमत्कार उत्पन्न होता है वहां अर्थालंकार होता है जैसे = साड़ी बीच नारी है के नारी बीच साडी है।
अर्थालंकार के निम्न भेद होते हैं जैसे =
१ उपमा अलंकार २ रूपक अलंकार ३ प्रतीप अलंकार ४ व्यतिरेक अलंकार ५ उत्प्रेक्षा अलंकार ६ संदेह अलंकार
अर्थालंकार को याद करने की ट्रिक
" उपमा रूपक प्रतीप , व्यति उत्प्रेक्षा संदीप "
इस ट्रिक में संदीप से संदेह अलंकार है ।
३ उभयालंकार = वह अलंकार शब्द और अर्थ दोनों ही तरह से काव्य में चमत्कार उत्पन्न करे , उभयालंकार होता है।
४ पाश्चात्य अलंकार = हिंदी में पाश्चात्य प्रभाव पड़ने के बाद पाश्चात्य अलंकार का समावेश हुआ है।
पाश्चात्य अलंकार की निम्न भेद हैं जैसे =
१ मानवीकरण अलंकार २ भावोक्ति अलंकार ३ ध्वन्यालोक अलंकार आदि।
१ अनुप्रास अलंकार = अनुप्रास शब्द में अनु का अर्थ = बार -बार और प्रास का अर्थ है - वर्ण।
यानी वर्ण की बार -बार आवृति ही अनुप्रास अलंकार कहलाता है , जैसे - तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर वहु छाये
अनुप्रास अलंकार के ५ भेद होते हैं
१ छेकानुप्रास २ वृत्यानुप्रास ३ लाटानुप्रास ४ श्रुत्यनुप्रास ५ अन्त्यानुप्रास
१ छेकानुप्रास = जब एक या अनेक वर्णों या शब्द की एक ही क्रम में एक से अधिक आवृति हो तो वह छेकानुप्रास अलंकार होता है जैसे -
* बंदउ गुरुपद पदुम परागा , सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।
* रीझि -रीझि रहसि रहसि हंसी -हंसी उठे।
* मुद मंगलमय संत समाजु , जो पग जंगम तीरतराजु।
ट्रिकी बिंदु -- छेका यानी एका और एका यानि एक ( एक बार से अधिक आवृति )
२ वृत्यनुप्रास = जिसमे एक या कई वर्ण की दो या दो से अधिक या प्रारम्भ या अंत में अनेक बार आवृति हो तो वहां वृत्यनुप्रास होता है जैसे -
* तरनि तनूजा तट तमाल , तरुवर वहु छाये
* सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरंतर गावै
* "स " वाले ससुराल में करते सभी निवास , ससुरा साली साला सलहज समधी समधन सास
* अंजनु रंजनु हूँ बिना , खंजनु गंजनु नैन
ट्रिकी बिंदु -- वृत्या यानि वृत्त (गोला) यानी वर्ण की इतनी आवृति हो की एक वृत्त बन जाये
३ लाटानुप्रास = जहाँ समानार्थक शब्दों या वाक्यांशों की आवृति हो परन्तु अर्थ में अंतर हो वह लाटानुप्रास होता है जैसे -
* पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय।
* राम हृदय जाके नहीं , विपत्ति सुमंगल ताहिं ,
राम हृदय जाके , नहीं विपत्ति सुमंगल ताहिं।
( इसमें " , " के निसान के स्थान परिवर्तन से ही पंक्ति के अर्थ परिवर्तन हो गया है )
* पराधीन जो जन नहीं , स्वर्ग नरक ता हेत ,
पराधीन जो जन , नहीं स्वर्ग नरक ता हेत।
( इसमें " , " निसान के स्थान परिवर्तन से ही पंक्ति के अर्थ परिवर्तन हो गया है )
४ श्रुत्यानुप्रास = जहाँ एक ही उच्चारण स्थान से उच्चारित होने वाले वर्णो की आवृति हो या एक ही वर्ग (क च ट त प ) के वर्णो की आवृति हो वह श्रुत्यानुप्रास अलंकार होता है , जैसे --
* दिनांत था थे दीनानाथ डूबते ,
सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे। (इसमें "त " वर्ग के वर्णो की आवृति हुई है। )
* ता दिन दान दीन्ह धन धरनी ,
गाय न जाय कछुक कुल करनी। (यहाँ " त " वर्ग के वर्णो की आवृति हुई है। )
* तुलसी सीदत निसिदिन , देखत तुम्हारी निठुराई ( " त " वर्ग के वर्णो की आवृति )
ट्रिकी बिंदु -- एक ही वर्ग के वर्णो या एक ही उच्चारण स्थान से उच्चारित वर्णो की आवृति होती है।
५ अन्त्यानुप्रास = जहाँ पद या शब्द के अंत में एक वर्ण की आवृति हो वहां अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है। जैसे -
* लोचन जल लोचन कोना , जैसे परम कृपण कर सोना।
* कुंद इंदु सम देह ,उमा रमन करुणा अयन।
जाहि दीन पर नेह करहु ड्रिप मर्दन मयन।
* रघुकुल रीत सदा चली आयी प्राण जाये पर वचन न जाई।
* जय हनुमान ज्ञान गुण सागर , जय कपीह तिहु लोक उजागर।
* अचम्भा देख्या रे भाई , ठाढा सिंह चरावे गाई।
ट्रिकी बिंदु -- इसमें पंक्ति के अंत में तुकबंदी बनती है।
यमक अलंकार = जहाँ एक शब्द समूह या एक शब्द की आवृति हो किन्तु उसका अर्थ प्रत्येक बार भिन्न हो वहां यमक अलंकार होता है। जैसे -
* कनक- कनक ते सौ गुनी , मादकता अधिकाय
या पाय बौराये जग वा पाए बौराये। ( यहाँ एक कनक का अर्थ धतूरा है और दूसरे का अर्थ सोना है। )
* मेरी अंगना में आयो रे अंगना ( अंगना = १ आँगन , २ स्त्री )
* तीन बेर खाती थी वो तीन बेर खाती थी।
* खग-कुल -कुल -कुल सा बोल रहा है ( यहाँ खग -कुल = पक्षी का समूह , कुल -कुल = पक्षियों की कुल करलव )
*वो पर वारों उरबसी(अप्सरा का नाम ) ,सुन राधिके सुजान ,
तू मोहन के उर बसी (हृदय ) , कै हवै उरबसी(आभूषण ) सुजान।
श्लेष अलंकार = श्लेष का अर्थ है चिपकना , मिलना या संयोग होना।
जहाँ एक ही शब्द के अनेक अर्थ निकलें या जिसमे बिना शब्द आवृति की भी चमत्कार उत्पन्न हो वह श्लेष अलंकार होता है।
श्लेष अलंकार के २ भेद होते हैं - १ अभंग श्लेष २ सभंग श्लेष
१ अभंग श्लेष - अभंग का अर्थ है जो भंग न हो या जिसके टुकड़े न हो यानी पंक्ति या रचना में उसके शब्द के टुकड़े किये बिना ही दो या दो से अधिक अर्थ निकल जाते हैं वहां अभंग श्लेष होता है जैसे -
* माँगन ( भिखारी ) को देख पट देती बार -बार ( पट - १ कपड़ा , २ गेट देना )
*रहिमन पानी राखिये ,बिन पानी सब सून
पानी गए न ऊबरै ,मोती मानस चून। ( पानी - १ चमक २ आत्मप्रतिष्ठा ३ जल )
* चरन धरत शंका करत ,चितवन चारिहुँ ओर ,
सुबरन को ढूंडत फ़िरत ,कवि -व्यभिचारी -चोर। ( सुबरन - १ सुन्दर शब्द २ सुन्दर शरीर ३ स्वर्ण )
( १ कवि के लिए सुबरन शब्द का अर्थ सुन्दर शब्द के लिए हुआ है , २ व्यभिचारी के लिए सुबरन शब्द का अर्थ सुन्दर शरीर के लिए हुआ है। , ३ चोर के लिए सुबरन शब्द का अर्थ स्वर्ण के लिए हुआ है )
२ सभंग श्लेष = जहाँ शब्द या सन्दर्भ को भंग (तोड़ कर ) करने पर अलग अर्थ निकले वह श्लेष होता है। जैसे -
* चिर जीवों जोरी जुरे ,क्यों न सनेह गंभीर
को घटि ये वृषभानुजा , वे हलधर के वीर।
( वृषभ +अनुजा = बैल की बहन ) , ( वृषभानु + जा = वृषभान की पुत्री )
* कुजन पाल गुनवार्जित अकुल अनाथ
कहो कृपानिधि राउर कस गुनगाथ । ( कु = पृथ्वी ,जन =सेवक , कुजन =बुरा व्यक्ति )
वक्रोक्ति अलंकार = वक्रोक्ति शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है वक्र + उक्ति , " वक्र "का अर्थ टेढ़ा और "उक्ति " का अर्थ कथन अर्थात टेढ़ा कथन।
जहाँ वक्ता द्वारा भिन्न अभिप्राय से व्यक्त किये गए कथन का श्रोता भिन्न अर्थ की कल्पना करता है वहां वक्रोक्ति अलंकार होता है , इसके दो भेद होते हैं --१ श्लेष वक्रोक्ति २ काकू वक्रोक्ति
१ श्लेष वक्रोक्ति = जहाँ एक शब्द के दो अर्थ होने की वजह से वक्ता द्वारा कुछ और , श्रोता द्वारा कुछ और अर्थ ग्रहण किया जाये वह श्लेष वक्रोक्ति होता है। श्लेष वक्रोक्ति के भी दो भेद होते हैं
1 -सभंग श्लेष वक्रोक्ति 2 अभंग श्लेष वक्रोक्ति
*सभंग श्लेष वक्रोक्ति का उदाहरण =
" कागद ही पर जान गवाए " ( कागद = कागज़ , का +गदही {गधी } )
अभंग श्लेष वक्रोक्ति का उदाहरण =
* एक कबूतर देख हाथ में , पूछा कहाँ अपर है
उसने कहा अपर कैसा , उड़ गया सपर है। ( अपर = दूसरा , बिना पंख के )
२ काकू वक्रोक्ति = काकू का अर्थ है ध्वनि का विकार।
बोलते समय किसी भी प्रकार के विकार उत्पन्न होने के कारण वह जो कह रहा है उस बात में परिवर्तन होना ही काकू वक्रोक्ति कहलाता है जैसे =
* कोउ नृप होहिं हमहि का हानि
चेरी छाडि अब होब की रानी।
* कैसे मंजर सामने आने लगे हैं , गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो , ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं।
(दुष्यंत जी ने यहाँ emergency जैसे हालात में सेंसरशिप के बाबजूद सर्कार पर व्यंग्य करते हुए उसे बदलने की बात कही है )
उपमा अलंकार = उपमा का अर्थ है सादृश्य , तुलना या समान।
सामान धर्म के आधार पर जहाँ एक वास्तु की तुलना किसी दूसरी वस्तु से की जाये वहां उपमा अलंकार होता है उपमा के चार अंग हैं और तीन भेद होते है।
उपमा के चार अंग = १ उपमेय २ उपमान ३ साधारण धर्म ४ वाचक
१ उपमेय = जिस व्यक्ति या किसी व्यक्ति की किसी दूसरे से तुलना की जाये अथवा जो प्रस्तुत हो ।
२ उपमान = जिस व्यक्ति या वस्तु से तुलना की जाये अथवा जो अप्रस्तुत हो।
३ वाचक = उपमेय और उपमान में समानता को दर्शाने वाले शब्द वाचक होते हैं जैसे तुल्य , सम , सरिस, से आदि।
४ समान धर्म = उपमान और उपमान में रूप , गुण ,स्वभाव की समानता ही समान धर्म है।
उपमा अलंकार के ३ भेद होते है-
१ पूर्णोपमा २ लुप्तोपमा ३ मालोपमा
१ पूर्णोपमा = जहाँ उपमा के चारों अंग ( उपमेय , उपमान , वाचक , समान धर्म )विद्यमान होते हैं वहां पूर्णोपमा अलंकार होता है जैसे -
* हरिपद कोमल कमल से ( उपमेय - हरिपद ,उपमान - कमल, वाचक - से , समान धर्म - कोमल )
* पीपर पात सरिस मन डोला (उपमेय -मन , उपमान -पीपल का पत्ता , वाचक -सरिस , समान धर्म -डोला (हिलना )
२ लुप्तोपमा = जहाँ उक्त चारो अंगों(उपमेय ,उपमान , वाचक , सामान धर्म ) में से किसी का उल्लेख न हो या लुप्त हो वहां लुप्तोपमा होता है जैसे -
* सीता का मुख चंद्र के सामान (१ उपमेय= सीता २ उपमान= चन्द्रमा ३ वाचक= सामान ४ सामान धर्म =लुप्त है )
* मांगते हैं मत भिखारी के सामान (१ उपमेय =लुप्त २ उपमान=भिखारी ३ वाचक=सामान ४ सामान धर्म = माँगना )
३ मालोपमा = जब उपमा में एक उपमेय के अनेक उपमान दिए जाते हैं तो वहां मालोपमा अलंकार होता है जैसे -
* चन्द्रमा सा कांतिमय ,मृदु कमल सा कोमल महा ,
कुसुम सा हँसता हुआ , प्राणेश्वरी का मुख रहा।
* एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा जैसे ...
रूपक अलंकार = जहाँ उपमेय में उपमान का निषेध रहित आरोप हो या प्रस्तुत और अप्रस्तुत में इतनी समानता हो जाये कि दोनों एक ही लगे वहां रूपक अलंकार होता है। जैसे -
* मैया में तो चंद्र खिलौना लेहु।
* पायो जी मेने राम रत्न धन पायो।
* चरण कमल बन्दों हरी राई
* बीती विभावरी जाग री।
ट्रिकी बिंदु = जहाँ उपमेय और उपमान दोनों का रूप एक हो जाये
उत्प्रेक्षा अलंकार = उपमेय में उपमान की संभावना होने पर उत्प्रेक्षा अलंकार होता है उत्प्रेक्षा अलंकार के तीन भेद होते हैं - १ -वस्तूत्प्रेक्षा २ - हेतूत्प्रेक्षा ३- फलोत्प्रेक्षा
१- वस्तूत्प्रेक्षा - जब एक वस्तु में दूसरी वस्तु की संभावना की जाती है तो वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है में उपमान की संभावना ही वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार होता है जैसे -
* सोहत ओढ़े पीत पट , श्याम सलोने गात ,
मनहु नीलमणि शैल पर आतप परयो प्रभात।
* हरि मुख मनो मधुर मयंक(चन्द्रमा ) .
२- हेतूत्प्रेक्षा - जहाँ अहेतु में हेतु की संभावना की जाती है या अकारण में कारण की संभावना की जाती है वहां हेतूत्प्रेक्षा अलंकार होता है जैसे -
* पिऊ से कहेउ संदेसणा , हे भोरा हे काग
सो धनि विरहि जरी मुई , तेहिक धुआँ हम लाग।
३- फलोत्प्रेक्षा - फल न होने पर भी फल की संभावना की जाती है वहां फलोत्प्रेक्षा अलंकार होता है जैसे -
* बढ़त ताड़ का पेड़ यह मनु चुमन आकाश।
* सुधूप में जलने वाला , सुधा तृप्त करता है।
मनो नारायण मिल गए , ऐसी उम्मीद करता है।
भ्रांतिमान अलंकार = जहाँ समानता के कारण एक वस्तु में दूसरी वस्तु का भ्रम हो वहां भ्रांतिमान अलंकार होता है परन्तु इसमें कुछ समय के लिए ही भ्रम उत्पन्न होता है जो कुछ समय के बाद समाप्त हो जाता है जैसे -
* नाक का मोती अधर की कांति से , बीज दाड़िम का समझकर भ्रान्ति से
देखकर सहसा हुआ शुक यह मौन है, सोचता है अन्य शुक यह कौन है।
* जैसे रस्सी देखकर सर्प समझते आप।
* जानी श्याम घन श्याम को , नाच उठे वन मोर। (श्याम = काले बदल / कृष्ण )
संदेह अलंकार = जहाँ अति समानता के कारण उपमेय में किसी अन्य वस्तु का संशय उत्पन्न हो जाये तो वह संदेह अलंकार होता है परन्तु संदेह सुरु से अंत तक बना रहता है जैसे -
* साड़ी बीच नारी है कि नारी बीच साडी है
साड़ी ही कि नारी है नारी ही कि साडी है।
* भूखे नर को भूलकर हर को देते भोग
पाप हुआ या पुण्य ,करू हर्ष या सोग ( शोक )
दृष्टांत अलंकार = जहाँ किसी बात को स्पष्ट करने के लिए सादृश्यमूलक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है वहां दृष्टांत अलंकार होता है।
* मन मलीन तन सुन्दर कैसे , विष रास भरा कनक घाट कैसे।
* पंगी प्रेम नंदलाल के , हमें न भावत भोग
मधुप राजपद पाय के भीख न माँगत लोग।
* एक म्यान दो तलवार रह नहीं सकती
किसी और पर प्रेम नारी ,पति का क्या सह सकती।
विभावना अलंकार = जहाँ कारण के आभाव में भी कार्य हो रहा हो वहां विभावना अलंकार होता है जैसे -
* बिनु पग चले , सुने बिनु काना।
* नाची अचानक ही उठे , बिनु पावस वन मोर।
* उसको देखा भी नहीं , दे बैठे दिल हाय
कलियों को देखे बिना , भंवरा गीत सुनाय।
अन्योक्ति अलंकार =जब किसी वस्तु या व्यक्ति को लक्ष्य कर कही जाने वाली बात दुसरे की लिए कही जाए वहां अन्योक्ति अलंकार होता है जैसे -
* क्षमा सोभति उस भुजंग को , जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो जो दंतहीन ,विषरहित विनीत सरल हो।
* नहीं पराग नहीं मधुर मधु ,नहीं विकास इहिं काल
अली कलि ही सौ विंध्यो , आगे कौन हवाल।
मानवीकरण अलंकार = जहाँ प्रकृति और अमूर्त भावों को मानव के रूप में चित्रित किया जाता है वहां मानवीकरण अलंकार होता है जैसे -
* मेघमय आसमान से उतर रही , संध्या सुंदरी धीरे - धीरे।
* मेघ आये बड़े बन धन संवर के।
* बीती विभावरी जाग री अम्बर पनघट में डुबो रही।
* सागर के उर पर नाच नाच करती है लहरें मधुर गान।
अतिश्योक्ति अलंकार = जहाँ किसी बात को चमत्कार द्वारा लोक मर्यादा के विरुद्ध बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है वहां अतिश्योक्ति अलंकार होता है जैसे-
* हनुमान की पूँछ में लग न पायी आग ,लंका सारी जल गयी
गए निशाचर भाग
* देखा नदिया बड़ी अपार , घोडा कैसे उतरे पार
राणा ने सोचा इस पार , तब तक चेतक था उस पार।
पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार = इस अलंकार में कथन के सौन्दर्य को बढ़ाने एक ही शब्द की आवृति होती है या जब किसी बात पर बल देने के लिए शब्द की आवृति होती है तो पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार होता है। जैसे -
* ठौर- ठौर विहार करती
* चंचल - चंचल सुंदरी सुनारियां
* मधुर - मधुर मेरे दीपक जल
* फिर सूनी - सूनी सांझ हुई
व्यतिरेक अलंकार = जहाँ उपमेय की तुलना में उपमान को अधिक या काम दिखाया जाता है तो वहां व्यतिरेक अलंकार होता है जैसे -
* चंद्र सकलंक मुख निष्कलंक , दोनों में समता कैसी।
* साधू ऊँचे शैल सैम तदपि प्रकृति सुकुमार ( साधू को पत्थर से अच्छा बताया गया है ,साधु में प्रकृति सी कोमलता भी है और कठोरता भी है। )
विरोधाभास अलंकार = जहाँ किसी वस्तु के गुण या कार्य में वास्तविक विरोध न होने पर भी विरोध का वर्णन हो वहां विरोधाभास अलंकार होता है। जैसे -
* या अनुरागी चित्त की गति न समझे कोई ,
ज्यों - ज्यों बूढ़े श्याम रंग त्यों त्यों उज्जवल होये।
* मन जीते मन हारकर मन हारे मन जीत
बड़ी अनूठी रीत है फिर भी करते प्रीत।
* नयनों का लावण्य मधुर सा लगता है।
* मोहब्बत एक मीठा जहर है।
प्रतीप अलंकार = जहाँ उपमेय को श्रेष्ठ और उपमान को निकृष्ट अथवा कमजोर बताया जाता है वहाँ प्रतीप अलंकार होता है जैसे -
* सिय मुख समता किमी करे , चंद वापुरो रंक।
* दूर दूर तक विस्तृत था हिम,
स्तब्ध उसी की हृदय समान।
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